Shikshaprad Neetikathaen

क्या सुख के इच्छुक के लिए गुरु की आवश्यकता अनिवार्य है? किस प्रकार के शिक्षकों से बचना चाहिए? अदृश्य होते हुए भी क्या ईश्वर का अस्तित्व है? भगवान का न्याय कैसे निर्दोष है? क्या भगवान राम द्वारा वाली का वध उचित था? चित्तशुद्धि, विनम्रता, आत्म-नियन्त्रण व आस्था की क्या आवश्यकता है? गृहस्थ का आचरण कैसा होना चाहिए? ममत्व कैसे शान्ति का विध्वंसक है? क्या जगत् भ्रमात्मक है? ब्रह्मज्ञानी के क्या लक्षण हैं?’ – इत्यादि अनेक मूलभूत प्रश्नों के निश्चयात्मक विधि से उत्तर दिए गए हैं। ‘कामवासना, लालसा तथा क्रोध की हानिकारिता’, ‘सत्यशीलता के सूक्ष्म पहलू’, ‘धर्मान्तरण की विसङ्गति’, ‘भक्तिमार्ग पर कोई भी चल सकता है’, ‘हमारी कमियों के होते हुए भी अगर हम भगवान की शरण लेते हैं, तो भगवान हमें स्वीकार करते हैं’, ‘मूर्ति पूजा पर आलोक’, ‘भाग्य और मानव-प्रयत्न की परिधि’ – जैसे महत्वपूर्ण विषयों की व्याख्या की गई है। श्री शृङ्गेरी शारदा पीठ के 35वें पीठाधीश्वर परमपूज्य जगद्गुरु शङ्कराचार्य अनन्तश्री-विभूषित अभिनव विद्यातीर्थ महास्वामी जी (गुरुजी), अपनी 19 वर्ष की आयु पूरी करने से पूर्व ही जीवन्मुक्ति (जीवित रहते हुए संसार बन्धन से मुक्ति) प्राप्त करके, परब्रह्म में प्रतिष्ठित रहे। गुरुजी ने कहानियों के माध्यम से, अति जटिल आध्यात्मिक तत्त्वों को भी, चित्ताकर्षक शैली में ऐसे अनायास प्रस्तुत किया है कि लोग उन्हें सरलता से और समग्र रूप से समझ सकें। गुरुजी की ‘शिक्षाप्रद नीतिकथाएँ’ 98 शीर्षकों के अन्तर्गत इस ग्रन्थ में सम्मिलित हैं।

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